This is the full text of my article on Lata Ji, that was published in March 2022 issue of AKSHARA, Hindi Magazine.
***
बात है २४ अप्रैल १९४२ की। पुणे शहर में विश्व युद्ध के चलते कर्फ्यू के सन्नाटे के बीच, ससून अस्पताल के एक कमरे में एक गवैये का पार्थिव शरीर पड़ा था। मृत्यु अभी ही हुई थी, और उसकी १३ साल की बेटी अपने पिता को घर वापस ले जाने के प्रयोजन में इधर-उधर दौड़ भाग में लगी थी। कर्फ्यू के कारण आवागमन बंद था। इस कठिन परिस्थिति में एक टैक्सी ड्राइवर ने लड़की की मदद करते हुए उसके पिता को घर पहुंचाया। पिता कोई और नहीं बल्कि नाट्य संगीत के महान गायक मास्टर दीनानाथ मंगेशकर थे, और वह बालिका थी उनकी लाडली बड़ी बिटिया लता। उस दिन इस छोटी सी गुड़िया के अबोध जीवन में एक मोड़ आया। पिता की वट वृक्ष रूपी छाया के निर्गम से सहसा पूरे परिवार का दायित्व उसके नन्हें कंधों पर आ पड़ा । पिता से मिली संगीत की विरासत ही रोजी रोटी का आधार बनी। इस तरह शुरू हुई सुर साम्राज्ञी लता जी के जीवन की संगीत यात्रा।
यह कथा कई बार सुनी अथवा सुनाई गयी है।
सत्य तो ये है कि उपरोक्त कथा हम में से किसी के भी जीवन की गाथा हो सकती है। बाल्यावस्था में ही जिनके सर से माता-पिता का हाथ उठ जाता है, उनका आरम्भिक जीवन कष्टों और चुनौतियों से भरा होता है। यद्यपि, प्रायः, कठिन बाल्यावस्था के पश्चात् शनै: शनै: वयस्क जीवन भौतिक सुख सुविधा से व्यतीत होता है।
किन्तु इस लेख में चर्चा का विषय कुछ और है। विषय है, लता जी के जीवन का वह कालखंड जो उन्होंने सांसारिक दायित्वों को निभाने के बाद चुना। पिता की आकस्मिक मृत्यु के कारण जीवन की सुबह तो संघर्ष से भरी थी ही, अपितु उनके व्यक्तिगत जीवन की तो दोपहर भी तीक्ष्ण और संध्या स्याह रही । किशोरावस्था में ही लता जी ने संगीत जगत में अपनी साख बना ली थी। पारिवारिक जीवन भी कठिनाइयों के दौर को पार कर अब संभल चला था। किंतु लता जी के व्यक्तिगत जीवन की नैया को तो अभी बड़े तूफानों का सामना करना था। कैसी रही होगी इस गुड़िया के जीवन की लम्बी कहानी? जब उसने अपने परिवार का दायित्व निभाते निभाते सात सुरों का विशाल उत्तरदायित्व अपने कंधों पर ले लिया। जब स्वरों की साधिका स्वरों की देवी बन गयी। स्वरों की वो देवी जो विश्वरंजन में इतनी लीन हो गई कि अपने आप को ही भुला बैठी । कैसी होगी यह यात्रा जो १० नहीं, २० नहीं, ८० साल लम्बी निरंतर चलती चली गई?
स्वरों की दुनिया को सजाने वाली वह एकांत यात्रा।
जब मीना, आशा, ऊषा और हृदयनाथ की दीदी, देश की दीदी बनी
स्वर - ब्रह्माण्ड में निरन्तर गुंजायमान अत्यंत सूक्ष्म किन्तु शक्तिशाली ध्वनियाँ । इन तरंगों से जीव पिपासा हेतु अमृतधारा का प्रवाह होता है । इन अलौकिक ध्वनियों का समन्नवय मानव हृदय कंपन से संभव है। स्वरों का प्रभाव इतना गहन होता है कि वह मनुष्य की चेतना को भेदता हुआ, उसके अंतर्मन की गहराइयों में सुप्त अवस्था में विद्यमान विविध भावनाओं को झंकृत करने का बल रखता है। इन प्रभावशाली ध्वनियों को , जो सर्वत्र विद्यमान हैं, मनुष्य के अंतर्मन तक पहुँचने के लिए एक माध्यम की आवश्यकता होती है। इस माध्यम की भूमिका का निष्ठापूर्ण निर्वाह करना ही एक गायक का धर्म है। किंतु सावधान! यह कार्य अत्यंत जटिल होता है। इसमें एकाग्रता, निर्विकार भाव से स्वरों के प्रति समर्पण और साधना की आवश्यकता होती है। मनोरंजन हेतु गायन, और गायन के द्वारा किसी के अंतर्मन तक पहुंचना - इन दोनों क्रियाओं में धरती आकाश का सा अंतर है। यूँ तो हम सभी कुछ-ना-कुछ गुनगुनाने की क्षमता रखते हैं और हममें से कुछ सुरीले कंठ के स्वामी भी हैं। किंतु यहाँ चर्चा संगीत कला के उस शिखर पर पहुँचने की हो रही है, जहां से कलाकार अपने श्रोताओं के मन की गहराइयों में वास करने लगता है। प्रत्येक हृदय के समस्त तारों को झंकृत कर देने की क्षमता रखता है। जब वह अपनी लोरी से एक माँ का ममत्व पूर्ण करता है; जब वह एक नादान बालिका के मन में प्रीत के प्रथम पुष्प को प्रस्फुटित करता है; जब वह एक सुहागन के माथे के सिंदूर को उसकी आत्मा तक पहुँचा देता है; जब वह एक बहन की राखी बन उसके भाई के स्नेह की डोर बन जाता है; जब वह एक माँ की आवाज़ बन जाता है, जो अपने प्रिय पुत्र को अश्रुपूर्ण हो रण-विजयी होने का आशीर्वाद दे रही है।
ऐसे गायन की क्षमता केवल परिश्रम ही नहीं, अपितु बलिदान की भी अपेक्षा रखती है।
दिल में ये अरमान था ...
लता जी के सांगीतिक जीवन में एक समय ऐसा भी आया जब प्रसिद्धि और समृद्धि दोनो ही उन्हें प्राप्त हुईं। संभव था कि जीवन कि इस सुनहरी डगर पर वे भी अपना जीवन रंगों से परिपूर्ण करतीं। यह वो समय था जब दुनिया उनके द्वारा गाए गीतों पर मोहित थी। ऐसी परिस्थिति में वह जिस सुख की अभिलाषा करती, वह प्राप्य था। किंतु सतरंगी संसार का त्याग कर श्वेता बनने का ऐसा प्रण? यह भीष्म प्रतिज्ञा थी। फ़िल्म जगत की चकाचौंध में ऐसा जीवन अकल्पनीय है। प्रत्येक पल, दिन प्रतिदिन चोटी के संगीतकारों एवं अभिनेताओं के साथ कार्यशील रहना एवं अत्यंत प्रतिष्ठित सामाजिक जीवन, निस्सन्देह उनके संयम की निरंतर परीक्षा थी।
किंतु जैसे मीरा अपने श्याम से प्रीति कर बैठी थीं, कदाचित लता जी भी स्वरों को अपना स्वामी बना चुकी थीं।
जीवन में दुर्गम पथ को चुन लगातार आठ दशकों तक अपनी सर्वस्व आकांक्षाओं, अभिलाषाओं का परित्याग - इसकी अभिव्यक्ति शब्दों में संभव तो नहीं है, अपितु स्वयं लता जी के निम्नलिखित कथन में निश्चय ही झलकती है:
किसी ने उनसे जब यह पूछा कि क्या आप अगले जन्म में भी लता मंगेशकर बनना चाहेंगी ? तो उत्तर था:
“ ना ही जनम मिले तो अच्छा है। अगर वाक़ई जनम मिला मुझे, तो मैं ‘लता मंगेशकर’ बनना नहीं चाहूँगी। ये लता मंगेशकर.. की जो.. तकलीफें हैं वो उसको ही पता है।”
निश्चय ही जीवन के कई पल रीतापन एवं उदासीन बीते होंगे। कभी तो यह प्रतीत होता है कि उनकी कठोर साधना ही उनके सुरों में दर्द घोलती गयी। जैसे-जैसे तपस्या बढ़ती आवाज़ किंचित गहरी होने लगी, मानो सोना सैकड़ों बार भीषण अग्नि की भेंट चढ़ता और हर बार कुछ और निखरता, कुछ और संवरता, कुछ और चमकता। ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व की समस्त नारियों को एक माँ, एक बहन, एक प्रेयसी की न केवल आवाज़, अपितु भावनाएँ भी लता जी अपने हृदय कोष से साझा करती चली गयीं। उनका प्रत्येक गीत इतना प्रभावशाली था।
लता जी साक्षात सरस्वती का स्वरूप
लता जी के प्रशंसकों को उपरोक्त कथन में तनिक भर का संदेह नहीं है। यह सत्य वचन है। एक नहीं, सैकड़ों नहीं, लक्ष नहीं, कदापि कोटि या उससे अधिक स्वर-स्फुटन, उनके अनगिनत गीतों में, प्रत्येक स्वर उतना ही अलंकृत, ऊर्जावान, और मधुर। क्या मानव कंठ से यह सम्भव है? कदापि नहीं। यह तो ईश्वर की अनुकंपा ही हो सकती है। तो ये मानना ही होगा की प्रभु स्वयं सरस्वती स्वरूप उनके कंठ में वास करते रहे।
परंतु लता जी सरस्वती स्वरूपा हैं, ऐसा कह कहीं हम उस नारी की अवमानना तो नहीं कर रहे? वे भी लता ही थीं, जो मानव मात्र थीं । वह भी लता थीं जिन्हें भूख-प्यास लगती होगी, वह भी लता थीं जो काम करते करते थक कर चूर हो जाती होंगी। वह भी लता थीं जिनके कुछ सपने होंगे, जिनका हृदय भी एक शिशु की भांति डोलता होगा। ना जाने ऐसे कितने बोझ, दर्द, सपने, इच्छाएँ लिए स्वर कोकिला समस्त विश्व के सुख और संतोष का कारण बनी रही। संगीतज्ञ जो संगीत का मर्म समझते हैं, कहते हैं कि लता जी संगीत की कल्पना से सारे विश्व का साक्षात्कार करा के परम पिता परमेश्वर के चरणों में शांति से जा बैठीं हैं। जैसे संगीत की परिभाषा लता जी के रूप में प्रत्येक मानव को पढ़ाती रही हो - ऐसा होता है संगीत।
दीनानाथ की छोटी सी गुड़िया विश्व को संगीत के दर्शन करा कर, थकी अपने बाबा की गोद में विश्राम करने चली गयी है। किंतु भूलोक का क्या? मानव जाति में सच्चे सुरों की रिक्तता को कौन भरेगा? इस जगत के कोलाहल के बीच स्वरों की उस शुचिता, उस संस्कार का उत्तरदायित्व , जिसका लता जी निशब्द एक युग तक एकल निर्वाहन करती रहीं - का क्या होगा? जो शुद्ध एवं सर्वश्रेष्ठ संगीत वे हम सबको प्रचुर मात्रा में प्रदान कर गयीं हैं, उसकी परंपरा का निर्वाह आगे कौन करेगा? संगीत परमपूज्य है, पवित्र है - व्यवसाय मात्र नहीं। जैसे एक राजनेता अपने देश की भौतिक समृद्धि एवं स्वास्थ्य हेतु कार्य करता है, उसी प्रकार एक समर्पित एवं सच्चा कलाकार देश की आत्मा को कला-सुख रूपी मधु से सिंचित करता है। समाज में समरसता (harmony) और उसका अलंकरण (ornamentation) करता है। लगभग एक सदी से तो लता जी ‘आनंदघन’ बन हम सब की तृष्णा को तृप्त करती रहीं। उनके जाने से संगीत जगत में आए इस आकाल का क्या होगा? कहीं लता जी से विरासत में मिले स्वरों की पवित्रता और परिपूर्णता शनै: शनै: रेत की भाँति हमारी मुट्ठियों से ढह तो ना जाएगी?
तो उपाय क्या है? माँ सरस्वती स्वरूप लता जी के प्रति श्रद्धांजलि तभी होगी जब हम उनके उदार हृदय से लुटाये रत्न स्वरूप स्वरों की शुद्धता का न केवल संरक्षण, अपितु उनके द्वारा स्थापित संगीत संस्कारों को आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित पहुंचा सकेंगे। सुर शिरोमणि लता जी को अमरत्व प्रदान करने का यही एकमात्र उपाय है और यह होगी हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि।
डॉ श्रुति जौहरी
भोपाल
***
No comments:
Post a Comment