Full text of the article published in May 2024 issue of AKSHARA, Hindi Magazine.
रामायण महाकाव्य में संगीत के तत्व
अभी कुछ दिन पहले ही नवनिर्मित राम मंदिर में प्रभु श्री राम लला मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा अयोध्या नगरी में संपन्न हुई | इस दौरान पूरा देश भक्तिमय हो गया एवं राममय संगीत चारों दिशाओं में गुंजायमान हो गया था| कुछ भजनो का श्रवण निरंतर होता रहा |
एक संगीत संवेदनशील मन के अधिकारी होने के नाते, इन भजनों को सुनते-सुनते मेरे मन मस्तिष्क में कई तरह के विचारों की रेलमपेल लग गयी | रामकथा हमारी सांस्कृतिक सभ्यता की सबसे लोकप्रिय कथा है जिसका पठन, मनन, गायन, वादन भारतीय इतिहास के हर काल खंड में साधारण जनमानस, संत एवं विद्वानों द्वारा किया जाता रहा है | इनमें महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण सर्वोत्तम कृति है, जिसमे श्री राम के जीवन-काल का न केवल संवेदनशील चित्रण किया गया है अपितु काव्य और संगीत की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ उत्कृष्ट है | परिणामस्वरूप रामायण अर्थात श्री राम की जीवन गाथा को लेकर प्राचीन काल से अनेक काव्य, नाटक, भजन, ध्रुपद, ठुमरी, कीर्तन इत्यादि की रचना एवं गायन किया गया है | भारतवर्ष ही नहीं, भारत के उपनिवेशों - सुमात्रा, जावा, बाली आदि देशों में भी श्री राम के मंदिर उपस्थित हैं | यद्यपि इनमे से बहुत से देशों के नागरिक धर्मान्तरित होने के पश्चात् इस्लाम धर्म का पालन करने लगे हैं | तथापि इनके नाटक, नृत्य एवं गान इत्यादि आज भी रामायण एवं महाभारत पर आधारित होते हैं | इसी प्राचीनतम राम-कथा अर्थात वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण एवं संगीत की संगम गाथा के कुछ उद्धरण आपके समक्ष प्रस्तुत करने की चेष्टा इस लेख में की गयी है |
रामायण में ‘समाज’ शब्द का प्रयोग
रामायण में ‘समाज’ शब्द का तात्पर्य वर्तमान से भिन्न है | रामायण काल में गीत, वाद्य, नृत्य का सामुदायिक रूप से उत्सव होता था | ऐसे उत्सव की पारिभाषिक संज्ञा “समाज” है | वैसे तो समाज शब्द का साधारण अर्थ मनुष्यों का समुदाय है | किन्तु विशिष्ट अर्थ में गीत, वाद्य, नृत्य और उत्सव के लिए जो समुदाय एकत्र होता था उसे ‘समाज’ कहते थे | समाज शब्द के अर्थ को दर्शाता हुआ निम्न श्लोक अयोध्याकाण्ड के ५१ वे सर्ग के २३ वें श्लोक, जिसमें लक्ष्मण अयोध्या का वर्णन करते हुए कहते हैं -
आरामोद्यानसम्पन्नां समाजोत्सव शालिनीम् ।
सुखिता विचरिष्यन्ति राजधानीं पितुर्मम ॥
श्री रामचंद्र जब वन में रात्रि प्रहार सो रहे थे तब लक्ष्मण जाग कर उनकी रक्षा कर रहे थे | गुह ने लक्ष्मण से कहा की आप भी सो जाइए तब लक्ष्मण गुह से कहते हैं कि वे सो नहीं सकते | राम के बिना पिताश्री दशरथ और माता कौशल्या जीवित न रहेंगे | यदि पिताश्री जीवित रहे तो उनको और उनकी राजधानी अयोध्या को हम लोग पुनः देख पाएंगे | बाग़ बगीचों से संपन्न ‘समाज’ उत्सव से संयुक्त मेरे पिता की राजधानी अयोध्या में वहां के सुखी निवासी विचरण करेंगे |
रामायण में संगीत
इतिहासकारों ने रामायण महाकाव्य की रचना का काल ईसा से लगभग ५०० वर्ष पूर्व का बताया है | इस काल को वीरगाथा काल भी कहा जाता है | ऐसा प्रतीत होता है कि इक्ष्वाकु वंश के वीर महाराजा, श्री राम की वीरता संबंधी गाथाएं अयोध्या के ‘चारण एवं सूत’ (गायक समुदाय) पद्य में निबद्ध कर वर्षों से गाते रहे होंगे | महर्षि वाल्मीकि ने इन कथाओं का विस्तार किया और २४,००० श्लोकों को एक अत्युत्तम महाकाव्य का रूप प्रदान किया | संस्कृत विद्वान आर्थर एंथोनी मैक्डोनल (A Vedic Grammar for Students) ने मुक्त कंठ से इस तथ्य को स्वीकार किया है कि समस्त विश्व के साहित्य में भी ऐसा ग्रंथ नहीं है जिसने लोगों के जीवन एवं चिंतन को इतना प्रभावित किया है जितना रामायण ने किया |
इस महाकाव्य की अप्रतिम ख्याति, उसका गायन, नृत्य एवं नाट्य कलाओं में नित दर्शन, इस बात का प्रतीक है कि इस महान कृति में न केवल चिंतन अपितु कला सौंदर्य भी भरपूर था एवं समस्त कला साधकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण विषय था |
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के प्रमुख महानायक जैसे स्वयं श्री रामचंद्र, लंका-नरेश रावण, महावीर हनुमान, किष्किंधा-नरेश सुग्रीव इत्यादि को संगीत विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया है | समस्त महाकाव्य में ऐसे अनेक प्रकरण हैं जहाँ गीत-संगीत, वाद्य-वृन्द, नृत्य-नाटिकाओं का सुन्दर चित्रण एवं सांगीतिक तत्वों का सूक्ष्म विवरण है |
किष्किन्धाकाण्ड के २८ वे सर्ग में श्लोक ३६ और ३७ इस प्रकार हैं :
षट्पादतन्त्रीमधुराभिधानं प्लवंगमोदीरीतकण्ठतालम् ।
अविष्कृतं मेघमृदमृदङ्गनादैर्वनेषु संगीतमिव प्रवृत्तम् ॥
क्वचित्प्रनृत्तैः क्वचिदुन्नदद्धि: क्वचिच्च वृक्षाग्रनिषण्णकायै:
व्यालम्बबहाऱभरणैर्मयूरैर्वनेषु संगीतमिव प्रवृत्तम् ॥
(श्री रामचंद्र किष्किंधा-वन का वर्णन करते हुए लक्ष्मण जी से कहते हैं - “ हे लक्ष्मण, देखो भ्रमरों का गुंजार वीणा का मधुर स्वर जैसा है | मेंढक मानो अपने कंठ से ताल के बोल बोल रहे हैं | मेघ का गर्जन मृदंग के नाद जैसा सुनाई दे रहा है | लगता है वन में संगीत चल रहा है |
और भी देखो, ये मयूर संगीत का कैसा दृश्य उपस्थित कर रहे हैं | इन लम्बी-लम्बी चोटियों वाले मयूरों में से कुछ तो नाच रहे हैं, कुछ गा रहे हैं, कुछ वृक्षों के अग्रभाग में बैठे हुए इस नृत्य और गान का आनंद ले रहे हैं | लगता है वन में संगीत चल रहा है | )
इसी प्रकार लंकापति रावण के संगीतानुराग से संबंधित अत्यंत सुन्दर वर्णन महाकाव्य में दृष्टिगोचर होते हैं |
जब हनुमान पहली बार लंका गए तो रात्रि भ्रमण में लंका नरेश के शयनकक्ष के वृतांत का रामायण में सुन्दर चित्रण है | लंकापति नरेश एवं भार्या मंदोदरी अपने शयनकक्ष में संगीत का आनंद ले रहे थे | दासियों द्वारा वीणा वादन एवं गायन से वातावरण सुमधुर ध्वनियों से परिपूर्ण था | कुछ दासियाँ वीणा वादन करते-करते वीणा को ही शय्या बनाकर निद्रालीन थीं | सुन्दरकाण्ड के १०वें सर्ग के ४१वें श्लोक में इस प्रकरण का उल्लेख कुछ इस प्रकार किया गया है :
विपञचीं परिगृह् यान्या नियता नृत्यशालिनी ।
निद्रावशमनुप्राप्ता सहकान्तेव भामिनि ॥
हनुमानजी ने लंका जाकर रावण के महल को देखा | इस स्थल पर महर्षि वाल्मीकि जी ने महल का अति-सुन्दर वर्णन किया है | साथ ही रावण के महल की उन सुन्दरियों का भी वर्णन है जो भिन्न-भिन्न वाद्यों को लिए सोई हुई थीं |
युद्धकाण्ड के ४४वें सर्ग के १२वें श्लोक में भेरी, मृदंग और पणव तीनों एक साथ प्रयुक्त हुए हैं | इसलिए इस श्लोक का उदाहरण पर्याप्त होगा :
ततो भेरीमृदङ्गानां पणवानां व निःस्वनः ।
शंङ्खनेमिस्वनोन्मिश्र: संबभूवाद्भुतोपमः ॥
भेरी, मृदंग और पणव वाद्यों का भी दुंदुभि के समान रण में योद्धाओं के उत्साहवर्धन के लिए प्रचुर उपयोग होता था | मृदंग और पणव का गान के साथ भी प्रयोग होता था |
इसी प्रकार किष्किन्धाकाण्ड में एक सांगीतिक वर्णन ऐसा आया है कि जब लक्ष्मण सुग्रीव को अपने कर्तव्य की याद दिलाने जाते हैं तो उनको उसके महल में मधुर संगीत सुनने को मिलता है | किष्किन्धाकाण्ड के ३३ वे सर्ग में श्लोक २१ इस प्रकार है :
प्रविशन्नेव सततं शुश्राव मधुरस्वनम् ।
तंत्रीगीतसमाकीर्णं समतालपदाक्षरम् ॥
अर्थात सुग्रीव के महल में घुसते ही लक्ष्मण ने वीणा के साथ उसके मधुर स्वरों में मिले हुए गीत सुने जिसके शब्द और ताल उन स्वरों से समायुक्त थे |
मार्गी संगीत
मार्ग संगीत रामायण काल में उच्च स्थान पर था और यहाँ मार्ग संगीत को समझना अनिवार्य होगा | रामायण काल में संगीत की दो धाराएं प्रचलित थीं - देशी संगीत एवं मार्गी संगीत |
देशी संगीत
भिन्न-भिन्न प्रदेश में वहां के लोगों की रूचि के अनुसार अथवा उस प्रदेश की रीति के अनुसार गाया जाता था और वहां के लोगों का मनोरंजन करता था, वह देशी-संगीत के नाम से प्रचलित था |
मार्गी संगीत
हमारे मन मस्तिष्क को अध्यात्म की ओर आकृष्ट करता हो वह मार्गी संगीत है | यह विद्या मात्र इन्द्रियों की तृप्ति हेतु नहीं है | इसके गायन में विज्ञान और चिंतन का समिश्रण है | यह विद्या वेदों के मंत्रोच्चार से उपजी है| अतः जो देवताओं के लिए अत्यंत इष्ट हो, गंधर्वों को प्रिय हो, वह मार्ग अथवा गन्धर्व संगीत है |
ऐसा सर्वविदित है कि महर्षि वाल्मीकि के रामायण महाकाव्य की रचना मूलतः गद्य रूप में थी, जिसमें मार्गी संगीत के समस्त तत्त्व जैसे छंद, श्रुति-स्वर, मूर्छना, ताल, लय इत्यादि समाहित थे | उन्होंने स्वयं राजा राम के दोनों सुपुत्र ‘लव-कुश’ को गीत-संगीत की विद्या में पारंगत कर रामायण महाकाव्य का प्रचार प्रसार किया | ऐसी मान्यता है कि ‘लव-कुश’ की रामायण स्तुति की सांगीतिक परंपरा तत्पश्चात ‘कुशीलव’ नामक ‘रामकथा कारों’ की प्रेरणा रही|
इस तरह उपरोक्त विवरण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि रामायण महाकाव्य उत्कृष्ट संगीत से परिपूर्ण था | यह मार्गी संगीत था जो सुनने वाले को रामकथा के साथ-साथ भक्ति, अध्यात्म और मोक्ष की ओर अग्रसर करता है |
हाल ही में हुए राम मंदिर में रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर सारा देश भक्ति संगीत से ओतप्रोत हो गया था | जगह जगह राम-भजन सुने-गाये गए| अगर हम इन्हे सांगीतिक दृष्टि से देखें तो इनकी गद्य एवं गेय सामग्री - साधारण ही थी | अधिकतर भजन शब्दों की तुकबंदी का एक संग्रह थे जो तरन्नुम (simple melody) में निबद्ध थे | यद्यपि इस संकीर्तन का भी भक्ति संगीत में अपना स्थान है, किन्तु रामकथा से संबंधित नृत्य, नाट्य एवं संगीत की अन्य उत्कृष्ट शैलियाँ को भी पुनर्स्थापित करने का यह सुनहरा अवसर है और अयोध्या नगरी इसका केंद्र बने तो पुनः मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सत्चरित्र का यश समस्त विश्व में समरसता से प्रतिध्वनित हो जाएगा |
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